शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

श्री सूक्त के कुछ प्रयोग


तस्मै श्री गुरवे नमः 

श्रीं ह्रीं क्लीं।।हिरण्य-वर्णा हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं
, जातवेदो म आवह।। श्रीं ह्रीं क्लीं
सुवर्ण से लक्ष्मी की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति का पूजन हल्दी और सुवर्ण-चाँदी के कमल-पुष्पों से करें। फिर सुवासिनी-सौभाग्यवती स्त्री और गाय का पूजन कर, पूर्णिमा के चन्द्र में अथवा पानी से भरे हुए कुम्भ में श्रीपरा-नारायणी का ध्यान कर, सोने की माला से कमल-पत्र के आसन पर बैठकर, ‘श्रीसूक्त की उक्त हिरण्य-वर्णा॰॰ ऋचा में श्रीं ह्रीं क्लीं बीज जोड़कर प्रातः, दोपहर और सांय एक-एक हजार (१० माला) जप करे। इस प्रकार सवा लाख जप होने पर मधु और कमल-पुष्प से दशांश हवन करे और तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण-भोजन नियम से करे। इस प्रयोग का पुरश्चरण ३२ लाख जप का है। सवा लाख का जप, होम आदि हो जाने पर दूसरे सवा लाख का जप प्रारम्भ करे। ऐसे कुल २६ प्रयोग करने पर ३२ लाख का प्रयोग सम्पूर्ण होता है। इस प्रयोग का फल राज-वैभव, सुवर्ण, रत्न, वैभव, वाहन, स्त्री, सन्तान और सब प्रकार का सांसारिक सुख की प्राप्ति है।

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महा-लक्ष्म्यै नमः।। 
दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।
ॐ ऐं हिरण्य-वर्णां हरिणीं
, सुवर्ण-रजत-स्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं
, जातवेदो म आवह।।
दारिद्रय-दुःख-भय-हारिणि का त्वदन्या
, सर्वोपकार-करणाय सदाऽर्द्र-चित्ता।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महा-लक्ष्म्यै नमः।।
 
यह श्रीसूक्त का एक मन्त्र सम्पुटित हुआ। इस प्रकार तां म आवहसे लेकर यः शुचिः तक के १६ मन्त्रों को सम्पुटित कर पाठ करने से १ पाठ हुआ। ऐसे १२ हजार पाठ करे। चम्पा के फूल, शहद, घृत, गुड़ का दशांश हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। इस प्रयोग से धन-धान्य, ऐश्वर्य, समृद्धि, वचन-सिद्धि प्राप्त होती है। 


  ॐ ऐं ॐ ह्रीं।। 
तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्। 
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरुषानहम्।। 
ॐ ऐं ॐ ह्रीं ॥  
सुवर्ण से लक्ष्मी की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति का पूजन हल्दी और सुवर्ण-चाँदी के कमल-पुष्पों से करें। फिर सुवासिनी-सौभाग्यवती स्त्री और गाय का पूजन कर, पूर्णिमा के चन्द्र में अथवा पानी से भरे हुए कुम्भ में श्रीपरा-नारायणी का ध्यान कर, सोने की माला से कमल-पत्र के आसन पर बैठकर, नित्य सांय-काल एक हजार (१० माला) जप करे। कुल ३२ दिन का प्रयोग है। दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। माँ लक्ष्मी स्वप्न में आकर धन के स्थान या धन-प्राप्ति के जो साधन अपने चित्त में होंगे, उनकी सफलता का मार्ग बताएँगी। धन-समृद्धि स्थिर रहेगी। प्रत्येक तीन वर्ष के अन्तराल में यह प्रयोग करे।

  ॐ ह्रीं ॐ श्रीं।। 
अश्व-पूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम्। 
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। 
ॐ ह्रीं ॐ श्रीं 
उक्त मन्त्र का प्रातः, मध्याह्न और सांय प्रत्येक काल १०-१० माला जप करे। संकल्प, न्यास, ध्यान कर जप प्रारम्भ करे। इस प्रकार ४ वर्ष करने से मन्त्र सिद्ध होता है। प्रयोग का पुरश्चरण ३६ लाख मन्त्र-जप का है। स्वयं न कर सके, तो विद्वान ब्राह्मणों द्वारा कराया जा सकता है। खोया हुआ या शत्रुओं द्वारा छिना हुआ धन प्राप्त होता है।

 करोतु सा नः शुभ हेतुरीश्वरी, शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः। 
अश्व-पूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम्। 
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। 
करोतु सा नः शुभ हेतुरीश्वरी, शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः।। 
उक्त आधे मन्त्र का सम्पुट कर १२ हजार जप करे। दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। इससे धन, ऐश्वर्य, यश बढ़ता है। शत्रु वश में होते हैं। खोई हुई लक्ष्मी, सम्पत्ति पुनः प्राप्त होती है।

 ॐ श्रीं ॐ क्लीं।। 
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। 
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। ॐ श्रीं ॐ क्लीं 
उक्त मन्त्र का पुरश्चरण आठ लाख जप का है। जप पूर्ण होने पर पलाश, ढाक की समिधा, दूध और गाय के घी से हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन, ब्रह्म-भोज करे। इस प्रयोग से सभी प्रकार की समृद्धि और श्रेय मिलता है। शत्रुओं का क्षय होता है।

 सर्वा-बाधा-प्रशमनं, त्रैलोक्याखिलेश्वरि! 
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्-वैरि-विनाशनम्।। 
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। 
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। 
सर्वा-बाधा-प्रशमनं, त्रैलोक्याखिलेश्वरि! एवमेव त्वया कार्यमस्मद्-वैरि-विनाशनम्।। 
उक्त सम्पुट मन्त्र का १२ लाख जप करे। ब्राह्मण द्वारा भी कराया जा सकता है। इससे गत वैभव पुनः प्राप्त होता है और धन-धान्य-समृद्धि और श्रेय मिलता है। शत्रुओं का क्षय होता है।

 ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं।। कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद महा-लक्ष्म्यै नमः।।
दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः
, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।
दारिद्रय-दुःख-भय-हारिणि का त्वदन्या
, सर्वोपकार-करणाय सदाऽर्द्र-चित्ता।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं।।कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद महा-लक्ष्म्यै नमः।।
उक्त प्रकार से सम्पुटित मन्त्र का १२ हजार जप करे। इस प्रयोग से वैभव, लक्ष्मी, सम्पत्ति, वाहन, घर, स्त्री, सन्तान का लाभ मिलता है।

 ॐ क्लीं ॐ वद-वद।। 
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।
ॐ क्लीं ॐ वद-वद।।
 
उक्त मन्त्र का संकल्प, न्यास, ध्यान कर एक लाख पैंतीस हजार जप करना चाहिए। गाय के गोबर से लिपे हुए स्थान पर बैठकर नित्य १००० जप करना चाहिए। यदि शीघ्र सिद्धि प्राप्त करना हो, तो तीनों काल एक-एक हजार जप करे या ब्राह्मणों से करावे। ४५ हजार पूर्ण होने पर दशांश हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। ध्यान इस प्रकार है- अक्षीण-भासां चन्द्राखयां, ज्वलन्तीं यशसा श्रियम्। देव-जुष्टामुदारां च, पद्मिनीमीं भजाम्यहम्।। इस प्रयोग से मनुष्य धनवान होता है।

 ॐ वद वद वाग्वादिनि।।
आदित्य-वर्णे! तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।
ॐ वद वद वाग्वादिनि
 
देवी की स्वर्ण की प्रतिमा बनवाए। चन्दन, पुष्प, बिल्व-पत्र, हल्दी, कुमकुम से उसका पूजन कर एक से तीन हजार तक उक्त मन्त्र का जप करे। कुल ग्यारह लाख का प्रयोग है। जप पूर्ण होने पर बिल्व-पत्र, घी, खीर से दशांश होम, तर्पण, मार्जन, ब्रह्म-भोजन करे। यह प्रयोग ब्राह्मणों द्वारा भी कराया जा सकता है। ऐं क्लीं सौः ऐं श्रीं- इन बीजों से कर-न्यास और हृदयादि-न्यास करे। ध्यान इस प्रकार करे- उदयादित्य-संकाशां, बिल्व-कानन-मध्यगाम्। तनु-मध्यां श्रियं ध्यायेदलक्ष्मी-परिहारिणीम्।। प्रयोग-काल में फल और दूध का आहार करे। पकाया हुआ पदार्थ न खाए। पके हुए बिल्व-फल फलाहार में काए जा सकते हैं। यदि सम्भव हो तो बिल्व-वृक्ष के नीचे बैठकर जप करे। इस प्रयोग से वाक्-सिद्धि मिलती है और लक्ष्मी स्थिर रहती है।

 ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय
, महा-माया प्रयच्छति।।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजाते
, वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु
, मायान्तरा ताश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।
ज्ञानिनामपि चेतांसि
, देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय
, महा-माया प्रयच्छति।। 
उक्त मन्त्र का १२००० जप कर दशांश होम, तर्पण करे। इस प्रयोग से जिस वस्तु की या जिस मनुष्य की इच्छा हो, उसका आकर्षण होता है और वह अपने वश में रहता है। राजा या राज्य-कर्ताओं को वश करने के लिए ४८००० जप करना चाहिए। 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

गावो विश्वश्य मातर:

क्या आप जानते हैं की औसतन एक गाय के पेट में 15-20 किलो
प्लास्टिक की थैलियाँ निकलती हैं। 
आज भारत वर्ष मे ही नहीं पूरे विश्व मे सभी मानव सुखी है पर जीव मात्र की माता कहलाने का अधिकार रखने वाली वेदों द्वारा पूज्यनीय, देवताओं को भी भोग और मोक्ष प्रदान करने की शक्ति रखने वाली गौ माता आज सड़कों पर मल, गन्दगी, प्लास्टिक खाने को मजबूर है।

भगवान श्री कृष्ण की कृपा से आज भी भारत वर्ष मे ही नहीं पूरे विश्व मे कुछ ऐसे पुण्यवान, भामाशाह और अपनी माँ के कोख को धन्य करने वाले गौ भक्त भी है, जिनके सहयोग से आज भी लाखो गौवंश गौशालाओं मे, किसानों के यहाँ, अपने घर पर ही सुरक्षित है । क्या ये गौभक्त, जिनकी वजह से पूरी सृष्टी का संतुलन बना हुआ है, आगे भी इसी प्रकार गौ सेवा में संलग्न रह सकेंगे ?

शेष मानव जाति को जिनको परमात्मा ने सोचने के लिए बुद्धि दे रखी है का भी कर्तव्य बनता है कि इस गो संवर्धन को उठाने मे, इस राम सेतु को बनाने मे ग्वाल -बालो एवं गिलहरी की तरह थोडा दृ थोडा यथा योग्य योगदान दे द्य जब हम थोडा-थोडा योगदान देंगे तो हम सभी गौभक्तों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रहेगा ।
शास्त्र कहता है कि गौ भक्त जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है वह सब उसे प्राप्त होती है। स्त्रियों मे भी जो गौओं की भक्त है, वे मनोवांछित कामनाएं प्राप्त कर लेती है। पुत्रार्थी पुत्र पाता है, कन्यार्थी कन्या, धनार्थी धन, धर्मार्थी धर्म, विद्यार्थी विद्या और सुखार्थी सुख पा जाता है। विश्व भर मे कही भी गौभक्त को कुछ भी दुर्लभ नहीं है। यहाँ तक की मोक्ष भी बिना गाय के पूंछ पकडे संभव नहीं। वैतरणी पर यमराज एवं उसके गण भयभीत होकर गाय के पूंछ पकडे जीव को प्रणाम करते है।

देवताओं और दानवो के द्वारा समुद्र मंथन के वक्त ५ गायें उत्पन्न हुई, इनका नाम था- नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला। ये सभी गायें भगवान की आज्ञा से देवताओं और दानवों ने महर्षि जमदग्नि, भारद्वाज, वशिष्ट, असित और गौतम मुनि को समर्पित कर दीं। आज जितने भी देशी गौवंश भारत एवं इतर देशो मे है, वह सब इन्ही ५ गौओं की संताने है और हमारे पूर्वजो एवं ऋषियों का यह महाधन है । क्या हम सिर्फ गोत्र बताने के लिए ही अपने ऋषियों की संताने हैं? उनकी सम्पति गौ धन को बचाना हमारा कर्तव्य नहीं ।

आज भारत वर्ष मे ही करोड़ों लोग सुबह दृ शाम देवालयों मे माथा टेक कर भगवान से मनोकामनाएँ मांगते है, पर इन मे से लाखों लोगो को यह तक भी मालूम नहीं है की जिस देवता से वे याचना कर रहे है उन्हें कुछ भी दे देने की शक्ति तभी आएगी जब हवन द्वारा अग्नि के मुख से देवताओं तक शुद्ध गौ घृत पहुंचेगा। जब हम हवन में गाय के घी से मिश्रित चरू देवताओं को अर्पण करते है उस उत्तम हविष्य से देवता बलिष्ट एवं पुष्ट होते है। जब देवता शक्तिशाली होगा तभी अपनी शक्ती के बल पर आपकी-हमारी मनोकामनाएं पूरी करने मे समर्थ होंगे। पर जब गौवंश ही नहीं रहेगा तो शुद्ध गौ घृत कहा से आएगा? और शुद्ध गौ घृत नहीं होगा तो हवन कहा से होगा? और हवन नहीं होंगे तो देवता पुष्ट कैसे होंगे? और देवता पुष्ट नहीं होंगे तो शक्तिहीन देवता मनोकामनाएं पूर्ण कैसे करेँगे ? आज हम लोग पेड़ लगा देते है पानी खाद नहीं डालेंगे तो फल कहा से लगेंगे? यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध है।

आज जितने भी कथाएं होती है, यज्ञ, अनुष्टान होते हैं, जप-तप होते है उनमें नाम-जप का कुछ प्रभाव पड़ता हो पर अंत मे जो यज्ञ होता है वह सफल कितने होते है यह राम को ही मालूम क्योंकि इन यज्ञों मे शुद्ध गौ घृत का उपयोग नहीं के बराबर होता है। आज भारत वर्ष मे पूर्व की अपेक्षा यज्ञ, धर्म, कर्म अधिक हो रहे है पर फल नहीं मिलता, यज्ञ सफल नहीं होते, क्या कारण है? इसके मूल मे यही है की जिस धरती पर गौ, ब्राहमण, साधू-संत, स्त्री दुखी होते है वहां पर पुण्य कर्म फल नहीं देते ।

कृपया अधिक जानकारी के लिए हमारी वैबसाइट www.jaigaumata.org देखें, या हमें ईमेल लिखें, हमें आप की सेवा करने में अत्यंत आनंद का अनुभव होगा। 




शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

तस्मै श्री गुरवे नमः

हे गुरुदेव ! वाणी-विनायक को प्रथम प्रणाम कर शब्दार्थ स्वरुप पार्वती-परमेश्वर की प्रार्थना करते हुए मैं आप के द्वार पर सविनय शीश झुकाता हूँ।

फिर अनुनय करता हूँ कि अपने आशीर्वचनों से अभिभूत करने से पहले तनिक ठहर कर समझरूपी प्रसूनावली को आप अपने चरणों में अर्पित करने का अवसर दें। हाँ तो शिष्यों ने आपको आचार्य, गुरु,अध्यापक,मास्टर,टीचर,फादर,उस्ताद,मौलवी,पंडित,भंते और न जाने किन-किन श्रेष्ठ नामों ने विभूषित कर रखा है और आप हर रूप में मानवता के सबसे बड़े संरक्षक, सद्विचारो के वितरक, सत्य के प्रवक्ता एवं रहस्य के समर्थ वक्ता रहे हैं। इन रूपों में हर ब्यक्ति के जीवन में आप की कोई न कोई अनुकरणीय भूमिका होती है जिसके लिए वह श्रद्धा से आप के सामने नतमस्तक हो जाता है।

अलंकरणो के इतिहास में जाएँ तो आपका सबसे प्राचीन अलंकरण गुरु शब्द है जिसका उल्लेख वेदों एवं पुराणों मे बहुतायत से हुआ है । ध्यान दें तो यह शब्द नहीं बल्कि आप का सम्पूर्ण प्रतिनिधि है । वस्तुतः, गुरु की परिभाषा गुरु शब्द से ही बनती है अर्थात, जो हमें अन्धकार(अज्ञान ) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर उन्मुख करे, वह गुरु है । बाद के क्रम में उपजे सभी अलंकरण समय एवं आवश्यकता के अनुरूप पर्याय बनते गये। आइये ! आप को याद दिलायें की आप के लिए हमारे सद्गुरुओ के क्या विचार रहें है।

निर्गुणियाँ कबीर कहते हैं कि सद्गुरू की महिमा अनंत है। उन्होंने हम पर अनंत उपकार किये हैं । आँखों में ऐसी अनंत ज्योति उत्पन्न कर दी कि मैंने अनंत (निर्गुण ब्रहम ) को देख लिया । तभी तो ऐसे गुरु को पाने के लिए कबीर साहब काशी में ब्रह्म मुहूर्त के समय गंगा घाट की सीढियों पर लेट गये ताकि गुरु का चरण उन पर पड़ जाये । फिर इसी उपकार से ऋणी कबीर के समक्ष जब गुरु और गोविन्द एक साथ आ जाते हैं, तो पहले गुरु के चरणों में पड़ते हैं,फिर गोविन्दमय हो जाते हैं ।कारण बताते हैं कि गुरु की ही बलिहारी है; जिसने गोविन्द से साक्षात्कार कराया ।

पद्मावत में मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं कि इस संसार में बिना गुरु के निर्गुण ब्रह्म को नहीं पाया जा सकता । इस पंथी को पंथ बताने वाला एक तोता हैगुरु सुवा जेहि पंथ देखावा ।बिन गुरु जगत को निर्गुण पावा । गोस्वामी जी तो सद्गुरु के समक्ष ऐसे नतमस्तक होते हैं कि चरणों के ऊपर उनकी आँखें उठती ही नहीं । वे भगवान राम के विमल यश का वर्णन करने के लिए अपने मन रुपी दर्पण की शुचिता श्री गुरु चरणों की धूल से सुनिश्चित करते हैं और कहते हैं :-

श्री गुरु चरण सरोज-रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनउं रघुवर विमल यश, जो दायक फल चारि ।।

इनके अनुसार मानव के चार परम उद्द्येश्यों का मार्ग श्री गुरु चरणों से होकर ही निकलता है। अपनी कालजयी रामचरित मानस की रचना करते समय वे शंकर रूप श्री गुरु की प्रार्थना निम्न पंक्तियों में करते हैं:-
बंदउं गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुन्ज, जासु वचन रविकर निकर ।।

इस महाकाव्य में तो आपके ब्यक्तित्व का विविध रूपों में निरूपण हुआ है और इसकी अप्रतिम छटा भगवान् शंकर से काकभुसुन्डी तक बिखरी पड़ी है। वर्तमान में आतें हैं तो प्रख्यात दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन आप को आचार्य रूप में देखना चाहते हैं, ताकि आपका आचरण अनुकरणीय हो । पूज्य जैन मुनि तुलसी का कहना है कि शिक्षक गुरु बने ; जबकि पंडित मालवीय ने शिक्षक को पिता रूप में देखना चाहा। निष्कर्षतः सभी विचारधाराएँ आप में ही आकर समाहित हो जाती हैं। हे आचार्यवर ! आपकी अनुभूति एवं उपस्थिति भी यत्र-तत्र सर्वत्र है । आज भी हम मंदिर जाएँ और हरिचर्चा सुनें। गुरुद्वारा जाएँ और गुरुबानी सुने । मस्जिद जाएँ और क़ुरान-शरीफ़ की आयतें सुनें । गिरिजाघर जाएँ जहाँ बाइबिल की पवित्र बातें हों । पाठशाला जाएँ जहाँ बच्चे संस्कार के सांचे में ढल रहे हों अथवा कारखानों में चलते बड़े-बड़े संयंत्रो का सञ्चालन रहस्य देंखे । सबके सूत्रधार तो आप ही दिखते हैं । फिर आप जैसे सूत्रधार की खोज किसे नही होंगी ? निश्चय ही वह सौभाग्यशाली है जिसे आप सद्गुरू रूप में मिलें और इसके विपरीत उस शिष्य के कर्म एवं संस्कार में कोई खोट है जिसे आप सद्गुरू रूप में न मिलें क्योकि एक अंधा (अज्ञानी ) गुरु दूसरे अंधा (अज्ञानी) को भवकूप में गिरने से कैसे बचा सकता है ?

शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी में तो प्रश्न आया है कि इस संसार में दुर्लभ क्या है। उत्तर है कि इस संसार में सद्गुरु का मिलना दुर्लभ है ।

अब हम आपको सद्गुरु के एकाध गुणों की कसौटी पर पहचानने का प्रयास करते हैं कि जिससे हम आपके सद्गुरुत्व को पहचान पायें । तो जिसका मस्तक श्रुति हो, चेहरा स्मृति हो, दोनों हाथ नीति और रीति के पर्याय हों, दोनों पांव गति एवं स्थिति स्वरुप हों, ह्रदय प्रेम या प्रीति का पर्याय हो अर्थात संत हो और जिसकी आत्मा ज्योति हो, वह गुरु है । इसमें भी गुरु का संत-ह्रदय होना एक बड़ा ही पारदर्शी लक्षण है, जिसका निरूपण गोस्वामी जी ने कुछ ऐसे किया है -
संत ह्रदय नवनीत समाना, कहा कबिन पर कहइ न जाना ।
निज परिताप द्रवहि नवनीता, पर दुःख-दुखी सो संत पुनीता ।

ऐसी अप्रतिम दयालुता तो आप सद्गुरु में ही हो सकती है । फिर इन सन्निवेशो से निर्मित आप का ब्यक्तित्व कृपा का सागर एवं साक्षात् प्रभु का रूप ही है । श्री मद्भगवदगीता में जब अर्जुन को श्री कृष्ण का विराटरूप दर्शन मिलता है तो वे स्तुति करते हुए कहते हैं, “त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान (आप ही गुरुओं के गुरु हो ) । यहाँ मुहर लग जाती है कि स्वयं ईश्वर भी आप रूप ही हैं ।

अब इससे अधिक आप को आप की महिमा का क्या याद दिलाऊँ कि हे गुरुदेव ! आप ही गुरुर्ब्रह्मा,गुरुर्ब्रिष्णु,गुरुदेवों महेश्वरः , गुरुसाक्षात परब्रह्म हो ।

इसप्रकार अपनी अल्पज्ञता की पुष्पावली आप के चरणों में समर्पित करता हूँ और
यत्सत्येन जगत्सत्यम, तत्प्रकाशेन भाति तत ।
यदानन्देन नन्दन्ति, तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।

जिस सत्य के कारण जगत सत्य दिखाई देता है, जिसकी सत्ता से जगत की सत्ता प्रकाशित होती है, जिसके आनंद से जगत में आनंद फैलता है, उस सच्चिदानंद रूपी आप सद्गुरु को मेरा नमन है । पञ्चदेवानाम परिक्रमा