हे
गुरुदेव ! वाणी-विनायक को प्रथम प्रणाम कर शब्दार्थ स्वरुप पार्वती-परमेश्वर की प्रार्थना
करते हुए मैं आप के द्वार पर सविनय शीश झुकाता हूँ।
फिर
अनुनय करता हूँ कि अपने आशीर्वचनों से अभिभूत करने से पहले तनिक ठहर कर समझरूपी प्रसूनावली
को आप अपने चरणों में अर्पित करने का अवसर दें। हाँ तो शिष्यों ने आपको आचार्य,
गुरु,अध्यापक,मास्टर,टीचर,फादर,उस्ताद,मौलवी,पंडित,भंते और न जाने किन-किन श्रेष्ठ
नामों ने विभूषित कर रखा है और आप हर रूप में मानवता के सबसे बड़े संरक्षक,
सद्विचारो के वितरक, सत्य के प्रवक्ता एवं रहस्य के
समर्थ वक्ता रहे हैं। इन रूपों में हर ब्यक्ति के जीवन में आप की कोई न कोई अनुकरणीय
भूमिका होती है जिसके लिए वह श्रद्धा से आप के सामने नतमस्तक हो जाता है।
अलंकरणो
के इतिहास में जाएँ तो आपका सबसे प्राचीन अलंकरण ‘गुरु’ शब्द
है जिसका उल्लेख वेदों एवं पुराणों मे बहुतायत से हुआ है । ध्यान दें तो यह शब्द नहीं
बल्कि आप का सम्पूर्ण प्रतिनिधि है । वस्तुतः, गुरु की परिभाषा ‘गुरु’ शब्द
से ही बनती है अर्थात, जो
हमें अन्धकार(अज्ञान ) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर उन्मुख करे, वह गुरु है । बाद के क्रम में उपजे सभी अलंकरण समय एवं
आवश्यकता के अनुरूप पर्याय बनते गये। आइये ! आप को याद दिलायें की आप के लिए हमारे
सद्गुरुओ के क्या विचार रहें है।
निर्गुणियाँ
कबीर कहते हैं कि सद्गुरू की महिमा अनंत है। उन्होंने हम पर अनंत उपकार किये हैं ।
आँखों में ऐसी अनंत ज्योति उत्पन्न कर दी कि मैंने अनंत (निर्गुण ब्रहम ) को देख लिया
। तभी तो ऐसे गुरु को पाने के लिए कबीर साहब काशी में ब्रह्म मुहूर्त के समय गंगा घाट
की सीढियों पर लेट गये ताकि गुरु का चरण उन पर पड़ जाये । फिर इसी उपकार से ऋणी कबीर
के समक्ष जब गुरु और गोविन्द एक साथ आ जाते हैं, तो पहले गुरु के चरणों में पड़ते हैं,फिर गोविन्दमय हो जाते हैं ।कारण
बताते हैं कि गुरु की ही बलिहारी है; जिसने गोविन्द से साक्षात्कार कराया ।
पद्मावत
में मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं कि इस संसार में बिना गुरु के निर्गुण ब्रह्म को नहीं
पाया जा सकता । इस पंथी को पंथ बताने वाला एक तोता है–गुरु
सुवा जेहि पंथ देखावा ।बिन गुरु जगत को निर्गुण पावा । गोस्वामी जी तो सद्गुरु के समक्ष
ऐसे नतमस्तक होते हैं कि चरणों के ऊपर उनकी आँखें उठती ही नहीं । वे भगवान राम के विमल
यश का वर्णन करने के लिए अपने मन रुपी दर्पण की शुचिता श्री गुरु चरणों की धूल से सुनिश्चित
करते हैं और कहते हैं :-
श्री गुरु चरण सरोज-रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनउं रघुवर विमल यश, जो दायक फल चारि ।।
इनके
अनुसार मानव के चार परम उद्द्येश्यों का मार्ग श्री गुरु चरणों से होकर ही निकलता है।
अपनी कालजयी रामचरित मानस की रचना करते समय वे शंकर रूप श्री गुरु की प्रार्थना निम्न
पंक्तियों में करते हैं:-
बंदउं गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुन्ज, जासु वचन रविकर निकर ।।
इस
महाकाव्य में तो आपके ब्यक्तित्व का विविध रूपों में निरूपण हुआ है और इसकी अप्रतिम
छटा भगवान् शंकर से काकभुसुन्डी तक बिखरी पड़ी है। वर्तमान में आतें हैं तो प्रख्यात
दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन आप को आचार्य रूप में देखना चाहते हैं, ताकि आपका आचरण अनुकरणीय हो । पूज्य
जैन मुनि तुलसी का कहना है कि शिक्षक गुरु बने ; जबकि पंडित मालवीय ने शिक्षक को पिता रूप में देखना चाहा।
निष्कर्षतः सभी विचारधाराएँ आप में ही आकर समाहित हो जाती हैं। हे आचार्यवर ! आपकी
अनुभूति एवं उपस्थिति भी यत्र-तत्र सर्वत्र है । आज भी हम मंदिर जाएँ और हरिचर्चा सुनें।
गुरुद्वारा जाएँ और गुरुबानी सुने । मस्जिद जाएँ और क़ुरान-शरीफ़ की आयतें सुनें ।
गिरिजाघर जाएँ जहाँ बाइबिल की पवित्र बातें हों । पाठशाला जाएँ जहाँ बच्चे संस्कार
के सांचे में ढल रहे हों अथवा कारखानों में चलते बड़े-बड़े संयंत्रो का सञ्चालन रहस्य
देंखे । सबके सूत्रधार तो आप ही दिखते हैं । फिर आप जैसे सूत्रधार की खोज किसे नही
होंगी ? निश्चय ही वह सौभाग्यशाली
है जिसे आप सद्गुरू रूप में मिलें और इसके विपरीत उस शिष्य के कर्म एवं संस्कार में
कोई खोट है जिसे आप सद्गुरू रूप में न मिलें क्योकि एक अंधा (अज्ञानी ) गुरु दूसरे
अंधा (अज्ञानी) को भवकूप में गिरने से कैसे बचा सकता है ?
शंकराचार्य
प्रश्नोत्तरी में तो प्रश्न आया है कि इस संसार में दुर्लभ क्या है। उत्तर है कि इस
संसार में सद्गुरु का मिलना दुर्लभ है ।
अब
हम आपको सद्गुरु के एकाध गुणों की कसौटी पर पहचानने का प्रयास करते हैं कि जिससे हम
आपके सद्गुरुत्व को पहचान पायें । तो जिसका मस्तक श्रुति हो, चेहरा स्मृति हो, दोनों हाथ नीति और रीति के पर्याय
हों, दोनों पांव गति एवं स्थिति
स्वरुप हों, ह्रदय
प्रेम या प्रीति का पर्याय हो अर्थात संत हो और जिसकी आत्मा ज्योति हो, वह गुरु है । इसमें भी गुरु का
संत-ह्रदय होना एक बड़ा ही पारदर्शी लक्षण है, जिसका निरूपण गोस्वामी जी ने कुछ ऐसे किया है -
संत ह्रदय नवनीत समाना, कहा कबिन पर कहइ न जाना ।
निज परिताप द्रवहि नवनीता, पर दुःख-दुखी सो संत पुनीता ।
ऐसी
अप्रतिम दयालुता तो आप सद्गुरु में ही हो सकती है । फिर इन सन्निवेशो से निर्मित आप
का ब्यक्तित्व कृपा का सागर एवं साक्षात् प्रभु का रूप ही है । श्री मद्भगवदगीता में
जब अर्जुन को श्री कृष्ण का विराटरूप दर्शन मिलता है तो वे स्तुति करते हुए कहते हैं,
“त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान” (आप ही गुरुओं के गुरु हो ) । यहाँ मुहर लग जाती है कि स्वयं
ईश्वर भी आप रूप ही हैं ।
अब
इससे अधिक आप को आप की महिमा का क्या याद दिलाऊँ कि हे गुरुदेव ! आप ही गुरुर्ब्रह्मा,गुरुर्ब्रिष्णु,गुरुदेवों महेश्वरः , गुरुसाक्षात परब्रह्म हो ।
इसप्रकार
अपनी अल्पज्ञता की पुष्पावली आप के चरणों में समर्पित करता हूँ और
यत्सत्येन जगत्सत्यम, तत्प्रकाशेन भाति तत ।
यदानन्देन नन्दन्ति, तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।
जिस
सत्य के कारण जगत सत्य दिखाई देता है, जिसकी सत्ता से जगत की सत्ता प्रकाशित होती है, जिसके आनंद से जगत में आनंद फैलता
है, उस सच्चिदानंद रूपी आप सद्गुरु
को मेरा नमन है । पञ्चदेवानाम परिक्रमा
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