रविवार, 19 जनवरी 2014

अथ सप्त्श्लोकी दुर्गा (अर्थ सहित)

शिव उवाच-
देवि त्वं भक्त सुलभे सर्वकार्य विधायिनी। कलौ हि कार्यसिद्धय्र्थमुपायं ब्रुहि यत्नतः।।
शिवजी बोले-
हे देवी! तुम भक्तों के लिये सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो। कलियुग में कामनाओं की सिद्धि-हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा सम्यक् रूप से व्यक्त करो।

देव्युवाच-
शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्। मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते।।

ऊँ अस्य श्री दुर्गा सप्तश्लोकी स्तोत्रस्य नारायण ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः, श्री दुर्गा प्रीत्यर्थ सप्तश्लोकी दुर्गा पाठे विनियोगः।

ऊँ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा। बालदाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।1।।
देवी ने कहा-
हे देव! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है। कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बतलाऊँगी, सुनो! उसका नाम है ‘अम्बास्तुति’।

ऊँ इस दुर्गा सप्तश्लोकी सतोत्रमन्त्र के नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप छन्द हैं, श्री महा काली, महा लक्ष्मी और महा सरस्वती देवता हैं, श्री दुर्गा की प्रसन्नता के लिये दुर्गापाठ में इसका विनियोग किया जाता है।

वे भगवती महामाया  देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह मे डाल देती है।।1।।

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थै स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दरिद्रय्दुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सद्र्राचित्ता।।2।।
माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरूषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याण्मयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवी! आपके सिवाय दूसरी कौन है, जिसका चित्त सब का उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो।।2।।

सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते।।3।।
नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान  करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरूषार्थो को सिद्ध करने वाली, शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एंव गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।।3।।

शरणागतदीनार्त परित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।4।।
शरण में आये हुए दीनों एंव पीडितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीडा दूर करने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते।।5।।
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है।।5।।

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयंता प्रयान्ति।।6।।

देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नंही। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते है।।6।।

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि। एवमेव त्वया कार्य स्मद्वैरिविनाशनम्।।7।।
सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।।7।।


।। इति श्री सप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा।।
तस्मै श्री गुरुवे नमः 

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

हमारे आहार का मन से संबंध


सात्विक आहार 
व्यक्ति को सोचना-विचारना मौलिक रूप से उसके तंत्रिकातंत्र की शारीरिक अवस्था पर निर्भर करता है और ऐसी कोई भी चीज जो तंत्रिकातंत्र की शारीरिक स्थिति को प्रभावित करती है प्रत्यक्ष रूप से ध्यान की प्रक्रिया को प्रभावित करती है।

तंत्रिका तंत्र की शारीरिक अवस्था खाने, पीने और सांस लेने की प्रक्रिया से पोषित होती है और संरक्षित रहती है। दैनिंदनी में क्रिया और विश्राम भी इसे प्रभावित करते हैं। अतएवं स्पष्ट है कि यदि ये सारी चीजें भलीभांति तालमेल में रहें तो तंत्रिकातंत्र की शारीरिक अवस्था का आदर्श रूप प्रतिष्ठित रहेगा और भावातीत ध्यान का अभ्यास भी सुगमता, गहनता और पूर्णता में होगा।

यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रकृति और शारीरिकी के हिसाब के अनुपयुक्त करता है या प्रदूषित वातावरण में सांस लेता है, तो उसके तंत्रिकातंत्र में शिथिलता आयेगी। इसी प्रकार यदि कोई ऐसे काम में लगता है, जिससे थकान और तनाव उत्पन्न हो, तो स्वाभाविक रूप से मन विचार प्रक्रिया के गहन स्तरों की थाह लेने  में सफल नहीं होगा। फलस्वरूप ध्यान कम प्रभावशाली होगा और मन के स्वभाव में आत्मचेतना का सार समाने अनावश्यक विलंब होगा। अतएवं यह अत्यनंत महत्वपूर्ण है कि खान-पान और आबोहवा के प्रति सजग रहा जाए।

खाने-पीने के मामले में छानबीन के संदर्भ में जिन लोगों ने इस विषय का अध्ययन किया है उनके निष्कर्ष से स्पष्ट है कि अविवेकी भोजन और मदिरापान व्यक्ति के सम्मुच्चय हित की दृष्टि से अत्यंत निषिध्द है। किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि व्यक्ति अपनी आहार शैली में यकायक आद्योपन्त परिवर्तन कर डाले। यही बहुत है कि वह उसे शनै: शनै: बदले।

भोजन का मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि जो भी हम खाते-पीते हैं वह पचकर रक्त में मिलता है और रक्त तंत्रिकातंत्र का पालन-पोषण करता है। इस दृष्टि से भोजन का मन की स्थिति से गहरा संबंध है। भोजन में पदार्थों की पोषकता और गुणवत्ता के अतिरिक्त इस बात का भी महत्व है कि भोजन किस प्रकार अर्जित किया गया है। यदि व्यक्ति अपनी आजीविका सात्त्वि साधनों से अर्जित करता है, तो उस भोजन का उसके मन पर रचनात्मक प्रभाव पड़ता है और यदि यही भोजन तामसिक साधनों से अर्जित किया जाता है, तो वह मन में नकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।

इसी प्रकार भोजन का गुण रसोइए की मौलिक वृत्तियों, भोजन पकाते समय उसके मन की वृत्तियों और उसके अंदर चल रहे विचारों की गुणवत्ता से भी प्रभावित होता है। यही नहीं भोजन करते समय व्यक्ति का मन कैसा है, वह किन लोगों के साथ खाना खा रहा है और खाते समय क्या वार्तालाप हो रहा है, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। भोजन के पूर्व दैवी वंदना या जगत की सर्वशक्तिमान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यही रहस्य है, वास्तविक अर्थ है।
वैदिक दिनचर्या में भोजन ग्रहण करने के पूर्व ईश्वर के इस मंत्र का उच्चारण करते हैं- 

ऊ सहना भवतु, सहनौ भुनक्तु, सह वीर्यम, कर्वा वही, तेजस्विना मस्तु।
सह विद विश: वहि। ऊं शांति
, शांति: शांति:। 
ईश्वर के प्रति श्रध्दापूर्ण विचार और उसकी अनुकंपा के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने वाली मनोभूमि निश्चित ही भोजन की गुणवत्त को समृध्द करने वाली होती है।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

गो-वंशीय उपहारों पर एक नजर

आयुर्वेद में पंचगव्य  शब्द का प्रयोग होता है, जो पांच महत्वपूर्ण गोवंशीय उत्पादों का उल्लेख करता है। ये उत्पाद हैं- दूध, दही, घी, गोमूत्र और  गोबर।  कई बीमारियों के उपचार के  लिए इनका उपयोग या तो अलग-अलग किया जाता है या दूसरी जड़ी-बूटियों के साथ मिलाकर इन्हें प्रयोग में लाया जाता है। समझा जाता है कि इनके गुण, हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करते हैं।
यदि हम गायों के चारे और उनकी देखभाल और पूरे जीवन में उनके द्वारा दिए जाने वाले दूध को ध्यान मे रखें, तो संकर गायों की तुलना में भारतीय गायों पर खर्चा कम आता है।  जैव उर्वरकों के लिए गोबर और गोमूत्र तथा खेती और ढुलाई के लिए बैलों के इस्तेमाल को देखें, तो लगेगा कि संकर किस्म की गाय या बैल कम उपयोगी होते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखें, तो स्वदेशी गायें संकर प्रजातियों की तुलना में कहीं अधिक लाभदायक होती हैं।
रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग, भूजल के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल और उच्च पैदावार देने वाले महंगे बीजों के कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो गई है।  अनाज उत्पादन के वर्तमान स्तरों के लिए ऊंची लागत लगानी पड़ी है। संतुलन बनाए रखने का एकमात्र तरीका जैव कृषि को फिर से अपनाना है।  गाय, गोवंश की अन्य प्रजातियां तथा दूसरे मवेशियों से इस दिशा में मदद मिल सकती है। इसलिए गोबर, गोमूत्र और जैव उर्वरकों तथा जैव कीटनाशकों के प्रयोग को बढावा देने की जरूरत है, ताकि कृषि से लगातार  उत्तम परिणाम हासिल किए जा सकें। इसके अलावा यह सबसे कम खर्चीला  भी है।
गायों की स्वदेशी नस्लों के संरक्षण की जरूरत है। इसके लिए गौशालाओं तथा गायों की संख्या बढाने के निर्धारित कार्यक्रमों  से मदद मिल सकती है।  स्वदेशी नस्ल की गायों की प्रजनन क्षमता, उत्पादकता और गुणवत्ता बढाने के लिए मवेशी अनुसंधान केन्द्र स्थापित किए जाने चाहिए।
देश में लगभग 4000 गौशालाएं हैं। देश के पशुधन में सुधार के लिए इनमें समन्वय की जरूरत है।  गौशालाओं से भारतीय नस्लों को सुधारने और संरक्षित करने में जर्बदस्त सहायता मिल सकती है।
गोबर गैस संयंत्रों की स्थापना, गोबर की खाद बनाने और  पंचगव्य के औषधीय गुणों पर अनुसंधान भी उतना ही महत्वपूर्ण है।  इसके लिए गौशालाओं को गोवंश विकास केन्द्र घोषित किया जा सकता है।
अपरम्परागत ऊर्जा तैयार करने के लिए गोबर एक महत्वपूर्ण साधन है।  यह जलाऊ लकड़ी और बिजली का विकल्प है। परिणामस्वरूप वनों को कटने से बचाया जा सकता है और वन्य प्राणियों के रूप में मौजूद सम्पत्ति को बढाया जा सकता है। शुरूआत में सभी गोशालाओं और गोसदनों में गोबर गैस संयंत्र लगाए जा सकते हैं। इन संयंत्रों से बचे अपशिष्ट का इस्तेमाल, खाद के रूप मे किया जा सकता है।
गोमूत्र और गोबर, फसलों के लिए बहुत उपयोगी कीटनाशक सिध्द हुए हैं।  कीटनाशक के रूप में गोबर और गोमूत्र के इस्तेमाल के लिए अनुसंधान केन्द्र खोले जा सकते हैं, क्योंकि इनमें रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों के बिना,  खेतिहर उत्पादन बढाने की अपार क्षमता है।
स्वदेशी गाय एक विशेष प्रजाति है। इसके दूध, दही और घी में विशेष औषधीय गुण होते हैं। गाय के दूध में  कम कैलोरी, कम कैलोस्ट्रोल, उच्च माइक्रोपोषक तत्व और विटामिन होते हैं, इसलिए यह एक स्वास्थ्यवर्धक आहार माना जाता है।
गाय, हमारे जीवन और जैव- विविधता के लिए महत्वपूर्ण है। मवेशी क्षेत्र में गरीबी दूर करने और रोजगार के अवसर उत्पन्न करने की भारी संभावनाएं हैं। इसे हर स्तर पर बढावा दिया जाना चाहिए।

सोमवार, 6 जनवरी 2014

भारत में कब और कैसे गायों के क़तलगाह शुरू हुए।

मुगल साम्राज्य और गाय:

बाबर ने अपनी वसीयत “तूज़ुक-ए-बाबरी” में अपने पुत्रों से कहा “हुमायूँ को हिंदूओं की भावनाओं की इज्जत करनी चाहिए और इसीलिए मुगल साम्राज्य में कहीं भी न तो गाय की बलि हो और न ही गायों को मारा जाए। यदि कोई मुगल राजा इस का उलंघन करेगा, उसी दिन से हिंदुस्तान के लोग मुगलों का परित्याग कर देंगे”।
अनेकों मुगल राजाओं जैसे की अकबर, जहाँगीर, अहमद शाह आदि ने अपनी सल्तनत में गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाया हुआ था। मैसूर रियासत के शासकों (वर्तमान में कर्णाटक राज्य) हैदर अली और टीपू सुल्तान ने तो गौ हत्या और गौ मांस भक्षण को एक संज्ञेय अपराध घोषित कर दिया था, और यह कानून बनाया था की यदि कोई व्यक्ति गौ हत्या में लिप्त पाया गया या फिर गाय का मांस बेचता या खाता हुआ पाया गया तो उसके दोनों हाथ काट दिये जाएँ।

आज भारत वर्ष में 36000 से अधिक क़तलगाह है, कैसे शुरू हुआ ये सब?

अंग्रेज़ो का शासन काल और कत्लगाह

आजादी से पहले महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू, दोनों ही ने यह घोषणा कर दी थी की आजादी के बात भारत में पशु कत्लगाहों पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। परंतु यह स्वाभाविक है की इसे लागू नहीं किया, आखिर क्यों? क्योंकि रोबर्ट क्लाइव ने भारतीय मुसलमानों में ऐसा प्रचार किया की “गौ मांस खाना मुसलमानों का धार्मिक अधिकार है” और धीरे-धीरे यह वोट बैंक की राजनीति में परिवर्तित हो गया, कैसे?  आइये जाने...

राबर्ट क्लाइव जो की तथाकथित रूप से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का स्थापक था और बंगाल का दो बार गवर्नर भी बना, भारत की कृषि आधारित मजबूत अर्थव्यवस्था को देख कर आश्चर्य चकित था। उसने भारत की कृषि प्रणाली का गूढ़ अध्ययन किया और पता लगाया की इसका मूल आधार है हमारा पशु धन और उसमें भी प्रमुख रूप से गाय। उसने पाया की न सिर्फ धार्मिक रूप से वरन सामाजिक रूप से भी गाय बारात में एक महत्वपूर्ण पशु है। गाय किसी भी हिन्दू के घर में उसके परिवार के सदस्यों की भांति, परिवार का एक अभिन्न अंग थी। उसे यह जानकार आश्चर्य हुआ की अनेक गावों में तो पशुओं की संख्या वहाँ पर रहने वाले गाँव वालो से भी अधिक थी। सदियों से गाय का गोबर और मूत्र न केवल दवाइयों के निर्माण में काम आता था, बल्कि उसका उपयोग ईंधन और खाद के रूप में भी किया जाता था।  उस समय भारतीय कृषक किसी भी रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं किया करते थे। 

अतः राबर्ट क्लाइव ने यह निर्णय लिया की वह भारतीय समाज और कृषि व्यवस्था की इस रीढ़ को तोड़ देगा। और इस तरह, भारत का पहला पशु वध कारख़ाना राबर्ट क्लाइव द्वारा सन 1760 में कलकत्ता में शुरू हुआ। इस कारखाने में लगभग 30,000 गायें प्रतिदिन काटने की क्षमता थी। अब कोई भी अंदाजा लगा सकता है की इस अकेले कारखाने में एक साल में कितनी गए काटी जाती होंगी। धीरे-धीरे सौ वर्षों के अंतराल में भारतीय कृषि व्यवस्था को सहयोग देने के लिए पशुओं की कमी होने लगी।  अंग्रेज़ो ने इसकी भरपाई के लिए भारतीय किसानो को कृत्रिम खादों के उपयोग के लिए प्रेरित किया और भारत में ब्रिटेन से रासायनिक खाद, जैसे यूरिया और फास्फेट आदि का आयात शुरू हो गया। इस प्रकार भारतीय कृषि व्यवस्था अपनी नैसर्गिक प्रकर्ति पर आधारित व्यवस्था छोड़ कर  धीरे-धीरे विदेशों में निर्मित रासायनिक खादों और कलपुर्ज़ो पर निर्भर करने लगी।

क्या आप जानते हैं की 1760 से पहले भारत में न केवल गौ हत्या पर प्रतिबंध था, बल्कि सार्वजनिक रूप से मदिरा पान और वेश्यावृति आदि पर भी प्रतिबंध था। राबर्ट क्लाइव ने इन तीनों से प्रतिबंध हटा लिया और उन्हे कानूनी जामा पहना दिया।

इस प्रकार, अंग्रेजों ने अपनी इस चाल से एक तीर से तो शिकार किए, पहला था की पशु आधारित भारतीय कृषि व्यवस्था का नाश (पशुओं की संख्या कम कर के) और दूसरा?
यह तो स्वाभाविक ही था की इन कत्लगाहों में कोई भी हिन्दू कसाई के रूप में काम नहीं करता था, अंग्रेज़ वैसे भी अपनी फूट डालो और राज करो की नीति में महारत थे। तो उन्होने क्या किया? उन्होने मुसलमानो को कसाइयों के रूप में इन पशु कत्लगाहों में रोजगार दिया और धीरे धीरे मुसलिम समाज में यह प्रथा बनती गई की गाय को काटना या गाय को खाना उनका धार्मिक अधिकार है।

क्या आप जानते हैं की जिस राबर्ट क्लाइव ने यह सब शुरू किया उसका क्या हश्र हुआ – मित्रों, उसे अफीम खाने की आदत लग गई और अंत में उसने अपनी बीमारियों और भयंकर दर्द से तंग आकर एक दिन आत्महत्या कर ली।

साभार:

1.    Cow Protection in India – L.L. Sundara Ram, pages 122-123 and 179-190.
2.    The foundations of the composite culture in India – Malika Mohammada

रविवार, 5 जनवरी 2014

श्री रूद्रष्टकं स्तोत्रम् - अर्थ सहित



नमामीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासम भजेङहम्।।1।।


हे मोक्ष स्वरूप, विभू, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर व सबके स्वामी श्री शिवजी! मैं आपको नमस्कार करता हूं। निज स्वरूप में स्थित अर्थात माया से रहित, गुणो से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाश रूप एंव आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर आपको भजता हूँ ।

निराकारमोंकार मूलं तुरीयं गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोङहम्।।2।।

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान व इंद्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार के परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ ।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभींर मनोभूत कोटि प्रभाश्रीशरीरम्।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारूगंगा लसद भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा।।3।।

जो हिमालय समान गौरवर्ण व गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोडों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा हैं, जिनके सर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीय का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।

चलत्कुण्डलं भ्रुसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुदर भकुटि व विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ व दयालु हैं, सिंह चर्म धारण किये व मुडंमाल पहने हैं, उन सबके प्यारे, सब के नाथ श्री शंकर जी को  मैं भजता हूँ ।

प्रचण्ड प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानु कोटिप्रकाशम।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणि भजेङहं भवानी पति भावगम्यम्।।5।।
प्रचण्ड (रूद्र रूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनो प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किये, प्रेम के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकर को मैं भजता हूँ।

कलातित कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जानन्ददाता पुरारी।
चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।6।।
कलाओं से परे, कल्यांणस्वरूप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु सच्चिनानंद मन, मोह को हरने वाले, प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।

न यावद उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ।।7।।
हे पार्वती के पति, जब तक मनुष्य आपके चरण कमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक में न परलोक में सुख शान्ति मिलती है और न ही तापों का नाश होता है।  अतः हे समस्त जीवों के अन्दर (हृदय) में निवास करने वाले प्रभो! प्रसन्न होइये।

न जानामि योगं जपं नैव पूजा नतोङहं सदा सर्वदा शम्भूतुभ्यम् ।
जरजन्मदुःखौ घतात प्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमाशीश शम्भो ।।8।।
मैं न तो जप जानता हूँ, न तप और न ही पूजा। हे प्रभो! मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ। हे प्रभो! बुढापा व जन्म और मृत्यु के दुःखों से जलाये हुए मुझ दुखी की दुखों से रक्षा करें। हे इश्वर, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।

रूद्राष्टकमिदं प्रोक्त विपेण हरतुष्टयै।
ये पठन्ति नरा भक्तया तेषा शम्भुः प्रसीदति ।।

भगवान रूद्र का यह अष्टक उप शंकर जी की स्तुति के लिये है। जो मनुष्य इसे प्रेम स्वरूप पढते हैं, श्री शंकर उप से प्रसन्न होते हैं।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

गुरु वंदना

परम पूज्य गुरुदेव भगवान।
(मुंगेली वाले महाराज) 

बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

 महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।

मैं उन गुरु महाराज के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुन्द्र हैं और नर रूप में श्री हरी ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समूह हैं। 

बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।

अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।१।।

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वंदना करता हूँ जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध, तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण हैं। वह अमर मूल (संजीवनी जड़) का सुंदर चूर्ण हैं, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार का नाश करने वाली है।

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।२।।


यह रज, सुकृति (पुण्यवान पुरुष) रूपी शिव जी के शरीर पर सुशोभित होने वाली निर्मल विभूति है, और सुंदर कल्याण और आनंद की जननी है। भक्त के मन का मेल दूर करने वाली है और तिलक करने से, गुणो के समूह को वश में करने वाली है। 

श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती।।

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।।३।।

श्री गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश मेरे अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके हृदय में आता है उसके बड़े भाग्य हैं। 

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।

सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।४।।

उसके हृदय में आते ही हृदय की निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुख मिट जाते हैं एवं श्री राम चरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट, जहां भी जिस खान में मैं वह सब दिखाई पड़ने लगते है। 

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।

कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।

जैसे सिद्धांजन को नेत्रो मैं लगा कर साधक, सिद्ध और सुजान, वनो और पृथ्वी के अंदर के कोतुकों से ही बहुत सी खाने देख लेते हैं।