रविवार, 5 जनवरी 2014

श्री रूद्रष्टकं स्तोत्रम् - अर्थ सहित



नमामीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासम भजेङहम्।।1।।


हे मोक्ष स्वरूप, विभू, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर व सबके स्वामी श्री शिवजी! मैं आपको नमस्कार करता हूं। निज स्वरूप में स्थित अर्थात माया से रहित, गुणो से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाश रूप एंव आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर आपको भजता हूँ ।

निराकारमोंकार मूलं तुरीयं गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोङहम्।।2।।

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान व इंद्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार के परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ ।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभींर मनोभूत कोटि प्रभाश्रीशरीरम्।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारूगंगा लसद भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा।।3।।

जो हिमालय समान गौरवर्ण व गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोडों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा हैं, जिनके सर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीय का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।

चलत्कुण्डलं भ्रुसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुदर भकुटि व विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ व दयालु हैं, सिंह चर्म धारण किये व मुडंमाल पहने हैं, उन सबके प्यारे, सब के नाथ श्री शंकर जी को  मैं भजता हूँ ।

प्रचण्ड प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानु कोटिप्रकाशम।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणि भजेङहं भवानी पति भावगम्यम्।।5।।
प्रचण्ड (रूद्र रूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनो प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किये, प्रेम के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकर को मैं भजता हूँ।

कलातित कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जानन्ददाता पुरारी।
चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।6।।
कलाओं से परे, कल्यांणस्वरूप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु सच्चिनानंद मन, मोह को हरने वाले, प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।

न यावद उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ।।7।।
हे पार्वती के पति, जब तक मनुष्य आपके चरण कमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक में न परलोक में सुख शान्ति मिलती है और न ही तापों का नाश होता है।  अतः हे समस्त जीवों के अन्दर (हृदय) में निवास करने वाले प्रभो! प्रसन्न होइये।

न जानामि योगं जपं नैव पूजा नतोङहं सदा सर्वदा शम्भूतुभ्यम् ।
जरजन्मदुःखौ घतात प्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमाशीश शम्भो ।।8।।
मैं न तो जप जानता हूँ, न तप और न ही पूजा। हे प्रभो! मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ। हे प्रभो! बुढापा व जन्म और मृत्यु के दुःखों से जलाये हुए मुझ दुखी की दुखों से रक्षा करें। हे इश्वर, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।

रूद्राष्टकमिदं प्रोक्त विपेण हरतुष्टयै।
ये पठन्ति नरा भक्तया तेषा शम्भुः प्रसीदति ।।

भगवान रूद्र का यह अष्टक उप शंकर जी की स्तुति के लिये है। जो मनुष्य इसे प्रेम स्वरूप पढते हैं, श्री शंकर उप से प्रसन्न होते हैं।

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