गुरुवार, 16 जनवरी 2014

हमारे आहार का मन से संबंध


सात्विक आहार 
व्यक्ति को सोचना-विचारना मौलिक रूप से उसके तंत्रिकातंत्र की शारीरिक अवस्था पर निर्भर करता है और ऐसी कोई भी चीज जो तंत्रिकातंत्र की शारीरिक स्थिति को प्रभावित करती है प्रत्यक्ष रूप से ध्यान की प्रक्रिया को प्रभावित करती है।

तंत्रिका तंत्र की शारीरिक अवस्था खाने, पीने और सांस लेने की प्रक्रिया से पोषित होती है और संरक्षित रहती है। दैनिंदनी में क्रिया और विश्राम भी इसे प्रभावित करते हैं। अतएवं स्पष्ट है कि यदि ये सारी चीजें भलीभांति तालमेल में रहें तो तंत्रिकातंत्र की शारीरिक अवस्था का आदर्श रूप प्रतिष्ठित रहेगा और भावातीत ध्यान का अभ्यास भी सुगमता, गहनता और पूर्णता में होगा।

यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रकृति और शारीरिकी के हिसाब के अनुपयुक्त करता है या प्रदूषित वातावरण में सांस लेता है, तो उसके तंत्रिकातंत्र में शिथिलता आयेगी। इसी प्रकार यदि कोई ऐसे काम में लगता है, जिससे थकान और तनाव उत्पन्न हो, तो स्वाभाविक रूप से मन विचार प्रक्रिया के गहन स्तरों की थाह लेने  में सफल नहीं होगा। फलस्वरूप ध्यान कम प्रभावशाली होगा और मन के स्वभाव में आत्मचेतना का सार समाने अनावश्यक विलंब होगा। अतएवं यह अत्यनंत महत्वपूर्ण है कि खान-पान और आबोहवा के प्रति सजग रहा जाए।

खाने-पीने के मामले में छानबीन के संदर्भ में जिन लोगों ने इस विषय का अध्ययन किया है उनके निष्कर्ष से स्पष्ट है कि अविवेकी भोजन और मदिरापान व्यक्ति के सम्मुच्चय हित की दृष्टि से अत्यंत निषिध्द है। किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि व्यक्ति अपनी आहार शैली में यकायक आद्योपन्त परिवर्तन कर डाले। यही बहुत है कि वह उसे शनै: शनै: बदले।

भोजन का मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि जो भी हम खाते-पीते हैं वह पचकर रक्त में मिलता है और रक्त तंत्रिकातंत्र का पालन-पोषण करता है। इस दृष्टि से भोजन का मन की स्थिति से गहरा संबंध है। भोजन में पदार्थों की पोषकता और गुणवत्ता के अतिरिक्त इस बात का भी महत्व है कि भोजन किस प्रकार अर्जित किया गया है। यदि व्यक्ति अपनी आजीविका सात्त्वि साधनों से अर्जित करता है, तो उस भोजन का उसके मन पर रचनात्मक प्रभाव पड़ता है और यदि यही भोजन तामसिक साधनों से अर्जित किया जाता है, तो वह मन में नकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।

इसी प्रकार भोजन का गुण रसोइए की मौलिक वृत्तियों, भोजन पकाते समय उसके मन की वृत्तियों और उसके अंदर चल रहे विचारों की गुणवत्ता से भी प्रभावित होता है। यही नहीं भोजन करते समय व्यक्ति का मन कैसा है, वह किन लोगों के साथ खाना खा रहा है और खाते समय क्या वार्तालाप हो रहा है, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। भोजन के पूर्व दैवी वंदना या जगत की सर्वशक्तिमान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यही रहस्य है, वास्तविक अर्थ है।
वैदिक दिनचर्या में भोजन ग्रहण करने के पूर्व ईश्वर के इस मंत्र का उच्चारण करते हैं- 

ऊ सहना भवतु, सहनौ भुनक्तु, सह वीर्यम, कर्वा वही, तेजस्विना मस्तु।
सह विद विश: वहि। ऊं शांति
, शांति: शांति:। 
ईश्वर के प्रति श्रध्दापूर्ण विचार और उसकी अनुकंपा के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने वाली मनोभूमि निश्चित ही भोजन की गुणवत्त को समृध्द करने वाली होती है।

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