शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

गुरु वंदना

परम पूज्य गुरुदेव भगवान।
(मुंगेली वाले महाराज) 

बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

 महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।

मैं उन गुरु महाराज के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुन्द्र हैं और नर रूप में श्री हरी ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समूह हैं। 

बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।

अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।१।।

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वंदना करता हूँ जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध, तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण हैं। वह अमर मूल (संजीवनी जड़) का सुंदर चूर्ण हैं, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार का नाश करने वाली है।

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।२।।


यह रज, सुकृति (पुण्यवान पुरुष) रूपी शिव जी के शरीर पर सुशोभित होने वाली निर्मल विभूति है, और सुंदर कल्याण और आनंद की जननी है। भक्त के मन का मेल दूर करने वाली है और तिलक करने से, गुणो के समूह को वश में करने वाली है। 

श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती।।

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।।३।।

श्री गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश मेरे अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके हृदय में आता है उसके बड़े भाग्य हैं। 

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।

सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।४।।

उसके हृदय में आते ही हृदय की निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुख मिट जाते हैं एवं श्री राम चरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट, जहां भी जिस खान में मैं वह सब दिखाई पड़ने लगते है। 

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।

कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।

जैसे सिद्धांजन को नेत्रो मैं लगा कर साधक, सिद्ध और सुजान, वनो और पृथ्वी के अंदर के कोतुकों से ही बहुत सी खाने देख लेते हैं। 

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